आम की उत्पादन तकनीक (Production Technology of Mango fruit)

प्रस्तावना (Introduction)

आम का वानस्पतिक नाम - मैंजीफेरा ईण्डिका

कुल - एनाकार्डिएसी

उत्पत्ति स्थान भारत - बर्मा क्षेत्र

गुणसूत्रों की संख्या - 2n = 40

खाद्य योग्य भाग - मेसोकार्प

फल का प्रकार - स्टोन/Drupe

परागण की क्रिया  - HOUSE FLY  के द्वारा 


हमारे देश में उगाये जाने वाले फलों में आम सबसे अधिक लोकप्रिय है। इसी कारण इसे फलों का राजा/बाथरूम फल  कहा जाताहै। इसकी खेती भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही प्रचलन में है। पौराणिक ग्रंथ जैसे "शतपत्र ब्राह्मण" में भी आम के वृक्षों का वर्णन मिलता है। वर्तमान में भी हमारा देश आम उत्पादन में विश्व के अग्रणी देशों में से एक है। इसका फल विटामिन ‘ए’ तथा ‘सी’ का श्रेष्ठ स्रोत है। ताजा फल के उपयोग के अलावा इसका उपयोग अचार अमचूर आम चटनी स्क्वेश तथा मुरब्बा आदि उत्पाद बनाने में भी उपयोग किया जाता है। भारतवर्ष के अधिकांश प्रांतो में आम लगाया जाता है, परन्तु उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, बिहार पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र तथा गुजरात प्रांत आम उत्पादन में अग्रणी प्रदेश है।वर्तमान मे आम के क्षेत्रफल, उत्पादन एवं उत्पादकता मे जम्मू कश्मीर राज्य  का प्रमुख स्थान हैं |राजस्थान में यह उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, सिरोही, बूंदी, सवाई माधोपुर, कोटा, भरतपुर व दौसा जिलों में प्रमुखता से लगाया जाता है। 

पोषण मूल्य (Nutritional value)

क्र. सं.

घटक 

मात्रा /100 ग्राम 

1

ऊर्जा 

230 किलो कैलोरी

2

प्रोटीन

0.9 ग्राम 

3

वसा

0.2 ग्राम 

4

कार्बोहाइड्रेट 

11.6 ग्राम 

5

फाइबर

1.5 ग्राम 

6

विटामिन सी 

26 माइक्रोग्राम 

7

विटामिन ई 

1.3 माइक्रोग्राम 

8

विटामिन ए 

4800 IU/100 ग्राम 

9

पोटेशियम 

197 मिलीग्राम 

10

कैल्शियम

7 मिलीग्राम 

11

पानी 

84.1 ग्राम 

Sourced from NUTTAB 2010 nutrition per 100g

जलवायु (Climate)

यद्यपि आम भारत वर्ष के विभिन्न राज्यों में पैदा किया जाता है, परन्तु इसके लिये उष्ण व उपोष्ण जलवायु उपयुक्त मानी गई है। इसके लिये वे क्षेत्र सर्वाधिक उपयुक्त हैं, जहाँ जून से सितम्बर तक पर्याप्त वर्षा होती है तथा पुष्पन व फलन के समय मौसम साफ रहता हो। आम की वृद्धि   के लिये 24-28° से. तापक्रम सर्वाधिक उपयुक्त रहता है।बहुत कम व अधिक वर्षा वाले स्थान आम की खेती के लिये उपयुक्त नहीं माने जाते है।

भूमि (Soil)

बलुई आम की उचित बढ़वार एवं फलन के लिये जीवाशयुक्त गहरी दोमट मिट्टी जिसमें जल निकास की उचित व्यवस्था हो, उपयुक्त रहती है। ऐसी भूमि जिसके 2 मीटर गहराई तक अवरोध न हो आम उत्पादन के लिये अच्छी रहती है। भूमि का पी.एच. मान 6.5 से 7.5 होना आम उत्पादन के लिये उत्तम रहता है। चूनायुक्त कंकरीली पथरीली व ऊसर भूमि इसकी खेती के लिये अनुपयुक्त रहती है।

उन्नत किस्में (Improved varieteis)

भारत में आम की लगभग 30 किस्में ऐसी है जिन्हे व्यावसायिक स्तर पर लगाया जाता है। क्षेत्रीय आधार पर उगाई जाने वाली प्रमुख किस्में निम्नलिखित है-

  1.  पूर्व क्षेत्र - हिमसागर, जरदालू, माल्दा, गुलाब खास, कृष्ण भोग।
  2.  पश्चिम क्षेत्र - अलफांसो, पायरी, लंगड़ा, केसर, राजापुरी, हाफुस, मुलगोवा एवं फर्नान्डीन।
  3.  उत्तर क्षेत्र - लंगड़ा, दशहरी, चैसा, बम्बई हरा, केसर, सफेदा एवं फजली।
  4.  दक्षिण क्षेत्र - बैंगलोरा, नीलम, तोतापुरी, बैंगनपल्ली, बानेशान, मुलगोवा, स्वर्णरखा एवं रुमानी।

इन किस्मों के अलावा कुछ संकर किस्मों का भी विकास हमारे देश में हुआ है जैसे कि आम्रपाली, मल्लिका, रत्ना, अर्का अरूण, अर्का अनमोल, निलेश्वरी, अर्का पुनीत, सिन्धु, एवं  लंगड़ा आदि राजस्थान में दशहरी, चैसा, लंगड़ा, आम्रपाली एवं मल्लिका किस्में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है।

प्रवर्धन (Propagation)

आम को बीज व वानस्पतिक विधियों द्वारा प्रवर्धित किया जा सकता है। अच्छे गुणों वाले इच्छित पौधे तैयार करने के लिए वानस्पतिक विधियों का ही प्रयोग किया जाता है। इन विधियों में इनाचिंग, वीनियर ग्राफ्टिंग, सॉफ्टवुड ग्राफ्टिंग एवं स्टोन ग्राफ्टिग प्रमुख है।

1. इनार्चिंग (Inarching) - इसे भेंट कलम विधि भी कहा जाता है। इनार्चिगं के लिए 60 सेमी लंबी व एक वर्ष पुरानी टहनी काम मे ली जाती है। जब मूलवृन्त लगभग एक वर्ष का 30-45 सेमी ऊँचाई का तथा 1-1.5 सेमी मोटाई का हो जाता है तो इनाचिंगं योग्य हो जाता है। इसकी भेंट मातृवृक्ष की एक वर्ष पुरानी 60 सेमी की टहनी से जिसकी मोटाई मूलवृन्त के समान हो, कराई जाती है। इसके लिए जुलाई माह सर्वोत्तम रहता है। भेंट कलम के लिए 20-25 सेमी ऊँचाई पर 6-7.5 सेमी लंबी छाल काष्ठ सहित चाकू द्वारा काट ली जाती है। इसी प्रकार समान लम्बाई एवं गहराई का कटाव सांकुर शाखा पर भी बनाया जाता है। मूलवृन्त तथा सांकुर शाखा के कटे हुए भाग को सावधानीपूर्वक मिला कर सूतली अथवा पॉलीथीन की पट्टी से बाँध देते हैं।

Inarching of Mango


2 वीनियर ग्राफ्टिंग (Veneer grafting)
- यह आम के प्रवर्धन की सरल विधि है एवं व्यावसायिक तौर अपनायी जा सकती है। वीनियर ग्राफ्टिंग के लिए मूलवृन्त इनाचिंग के समान ही तैयार किये जाते है। इसके लिए मूलवृन्त में 20 सेमी. ऊँचाई के निचले हिस्से पर 3-4 सेमी. लम्बा चीरा लगावे। चीरे के आधार पर एक आड़ा चीरा और लगावे जिससे कटा हुआ लकड़ी का टुकड़ा बाहर आ जाए। सांकुर शाखा पर एक तरफ लम्बा कलम के आकार का चीरा लगावें तथा दूसरी तरफ छोटा कट लगावें। मूलवृन्त मे कटी सांकुर शाखा को ठीक से बैठा देवे तथा पॉलीथीन की पट्टियों से बाँध देवें । मूलवृन्त का ऊपरी भाग लगभग 10 दिन बाद काट देवे। वीनियर ग्राफ्टिग करने का कार्य भी इनाचिंग की तरह जुलाई माह मे ही उपयुक्त रहता है।

3. सॉबटवुड ग्राफ्टिंग ( Soft wood grafting) - इस विधि में लगभग 9 माह पुराने बीजू पौधों को मूलवृन्त के लिए काम में लिया जाता है तथा मूलवृन्त के नए प्ररोह पर कलम चढ़ाई जाती है। नये प्ररोह को ऊपर से 3-4 सेमी की लम्बाई में काट देते है और काटे हुए ऊपरी भाग पर चीरा लगा देते हैं। उक्त चीरे मे इच्छित किस्म की सांकुर टहनी (लगभग 15 सेमी) के नीचे वाले भाग को दो तरफ से छील कर लगा देते है। सांकुर टहनी की मोटाई मूलवृन्त के समान होनी चाहिये। राजस्थान की जलवायु मे इस विधि के लिये सितम्बर माह सर्वोतम रहता है।

4. स्टोन या इपिकोटाइल ग्राफ्टिंग (Epicotyle grafting) - इस विधि में गुठली के अंकुरित होते ही 4-8 दिन के अन्दर बीजू पौधे वाले मूलवृन्त में लगभग इसी मोटाई की सांकुर को वेज (खूटे) का आकार बनाते हुए तथा मूलवृन्त में इसे लगाने हेतु चीरा लगाकर फँसा दिया जाता है। सफल कलम 2-4 सप्ताह में बढवार शुरू कर देती है। सांकुर को लगाने से पूर्व इसकी पत्तियाँ तोड देनी चाहिए।

पौधा रोपण (Planting)

उन्नत विधियों द्वारा प्रवर्धित किये गये पौधों का वर्षा ऋतु (जुलाई-अगस्त) में रोपण किया जाना चाहिए। उद्यान भूमि को समतल कर रोपाई के एक माह पूर्व 1×1×1 मीटर आकार के गढ्ढे 10×10 मीटर की दूरी पर खोदकर उन्हे खुला छोड देवें। प्रत्येक गढ्ढे में 25 किलो सड़ी हुयी गोबर की खाद, एक किलोग्राम सुपर फास्फेट तथा 1 किलोग्राम नीम की खली का  चूर्ण मिट्टी में अच्छी तरह मिलाकर गढ्ढा पुनः भर देवें।

खाद एवं उर्वरक (Manure and fertilizers)

आम की उचित बढवार के लिए पर्याप्त मात्रा में खाद, उर्वरक एव अन्य पोषक तत्वों का प्रयोग आवश्यक होता है। अधोलिखित तालिका के अनुसार आम के वृक्षों में खाद देनी चाहिए।

खाद व उर्वरक

(खाद एवं उर्वरक किलोग्राम में)
एक वर्ष

दो वर्ष

तीन वर्ष

चार वर्ष

पाँच वर्ष

गोबर की खाद

10.00 किलोग्राम

20.00 किलोग्राम

30.00 किलोग्राम

40.00 किलोग्राम

50.00 किलोग्राम

यूरिया

100 ग्राम

150 ग्राम

200 ग्राम

250 ग्राम

300  ग्राम

सुपर फास्फेट

-

300 ग्राम

400 ग्राम 

500  ग्राम

600  ग्राम

म्यूरेट ऑफ पोटाश

-

-

150 ग्राम

200  ग्राम

250  ग्राम

गोबर की खाद को दिसम्बर तथा सुपर फास्फेट व म्यूरेट आफ पोटाश को जनवरी माह में देना चाहिए जबकि नत्रजन की आधी मात्रा फूल आने के बाद व शेष आधी मात्रा फल तोड़ लेने के बाद देनी चाहिए। जस्ते की कमी होने पर 0.3 प्रतिशत जिंक सल्फेट के तीन छिड़काव पुष्पन के पश्चात् करना चाहिए।

सिंचाई (Irrigation)

आम के बाग में वर्षा ऋतु को छोड़कर गर्मियों में प्रति सप्ताह तथा शीत ऋतु में 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिये परन्तु नये लगाये गये पौधे को (बरसात छोड़कर) 3-4 दिन के अन्तराल पर सींचना चाहिए। । फल बनते समय भूमि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक होता है, परन्तु फूल आने से फल बनने तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए ।

निराई-गुड़ाई (Hoeing and Weeding)

आम के बगीचों को खरपतवारों से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए व भूमि की उर्वराशक्ति बनाये रखने के लिए निराई-गुड़ाई की आवश्यकता  है। आम के बगीचों में प्रतिवर्ष 2-3 जुताई करके खरपतवार रहित कर देना उपयुक्त रहता है।

अंतरासस्यन (Intercropping )

 आम के पोधो को लगाने के  तुरंत बाद आय प्राप्त नहीं  होती है, क्योकि आम में फलन  5 - 6 वर्ष पश्चात होने लगता हैं | इस समय बगीचे में पड़ी भूमि का उपयोग अंतरासस्यन के रूप में किया जा सकता है और अधिक आय प्राप्त की जा सकती हैं| अंतरासस्यन के लिए बगीचे में मूँग, उड़द, चना व मोठ आदि जैसे दलहनी फसलें, गेहूं जैसे अनाज वाली फसले, सरसों, तिल और मूंगफली जैसे तिलहन वाली फसले  गोभी, फूलगोभी, टमाटर, आलू, बैंगन, खीरा, कद्दू, करेला, टिंडा, भिंडी आदि सब्जियों की फसलें और मिर्च जैसे मसाले वाली फसले अंतरफसल के रूप में उगा सकते हैं। आंशिक छाया वाली फसलें जैसे अनानास, अदरक, हल्दी आदि की खेती पूर्ण विकसित बागीचो में की जा सकती है। इन फसलों के अलावा, कुछ कम अवधि वाली बौने प्रकार के इंटरफिलर फल फसले जैसे पपीता, अमरूद, आड़ू, बेर आदि उगाए जा सकते हैं जब तक कि ये आम की मुख्य फसल में हस्तक्षेप न करें।इस प्रकार ये अंतरासस्यन फसले किसान के अतिरिक्त आय का सहारा बनती है | 

उपज एवं भण्डारण (Yield and Storage)

आम के एक वयस्क पौधे से 80 से 100 किलोग्राम फल प्राप्त हो जाते है, वैसे पैदावार पेड़ की उम्र, किस्म तथा बगीचे की देखभाल पर भी निर्भर करती है। इसकी प्रति हैक्टर उपज 19 टन तक होती है। इसके फलों को 12.7 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 85-90 प्रतिशत आपेक्षिक आर्द्रता पर 2-3 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता है।

कीट एवं व्याधियाँ (Insect-pest and diseases)

कीट (Insect) - आम की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले विभिन्न कीटों मे निम्नलिखित कीट प्रमुख है।


मिली बग (Mealy bug-Drosicha mangiferae) - यह कीट आम की मुलायम टहनियों, पुष्पक्रम तथा छोटे फलों के डण्ठलों पर एकत्रित होकर रस चूसते हैं। इसके निदान के लिए दिसम्बर माह में खेत की जुताई करें। कीट को वृक्षों के ऊपर चढने से रोकने के लिए पेड़ के चारों ओर पोलीथीन की 30-40 सेमी चैड़ी पट्टी जमीन से 60 सेमी की ऊँचाई पर तने के चारों तरफ लगाकर इसके निचले भाग में 15-20 सेमी.तक ग्रीस का लेप कर देवें।इसके बाद तने के चारों ओर क्लोरपीरिफॉस रासायनिक दवा का 1.5 प्रतिशत चूर्ण 250 ग्राम प्रति पोधे के हिसाब से दिसम्बर माह के अंतिम सप्ताह में जरूर डालें |  


आम का फुदका (Mango hopper-Idioscopus niveosparsus, Idioscopus clypealis and Amirtodus atkinsoni ) - यह भूरे रंग का बहुत ही छोटा कीट होता है व आम के फूल, छोटे फल तथा नई वृद्धि का रस चूसता है जिससे पुष्पक्रम एंव छोटे फलों को काफी नुकसान होता है। फल मुरझाकर गिर जाते हैं तथा उपज घट जाती है। जुलाई के दौरान जुताई करके क्लेरोडेंड्रम इन्फ्लोरट्यूनाटम और घास जैसे खरपतवारों को हटा दें। इसके नियंत्रण हेतु दिसंबर के मध्य में पेड़ों को 20 सेंटीमीटर चैड़ी पॉलीथिन (400 गेज) से बांध दें(जमीन के स्तर से 50 सेमी ऊपर और शाखाओं के जंक्शन के ठीक नीचे)। तने को जूट के धागे से बांधें और पट्टी के निचले किनारे पर फलों के पेड़ के ग्रीस की थोड़ी सी मिट्टी लगाएं | 



छाल भक्षक कीट (Bark caterpillar-Indarbela quadrinotata) - यह कीट आम की छाल में घुसकर छाल को खाता है। तने एंव शाखाओं में सुरंग बना कर वृक्ष को खोखला बना देता है। इसके नियंत्रण हेतु रूई को पेट्रोल या केरोसीन में भिगोकर कीट की -सुरंगो के अन्दर भर देना चाहिए तथा ऊपर से मिट्टी लगा देवें अथवा

  1.  इसके नियंत्रण के लिए पेड़ के तने पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का लेप लगाएं।
  2.  बोर होल से ग्रब को बाहर निकालें - मोनोक्रोटोफॉस दवा को  10 से 20 मिली /छेद लगाएं।
  3.  एक सेल्फोस टैबलेट (3 ग्राम एल्युमिनियम फॉस्फाइड) प्रति छेद  या कार्बोफुरन 3 जी 5 ग्राम प्रति छेद लगाएं और मिट्टी से प्लग करें।

व्याधियाँ (Diseases) - आम की फसल को प्रभावित करने वाली निम्नलिखित है।

चूर्णी फफूंद(Powdery mildew) - यह रोग गोडियम मेन्जीफेरी नामक कवक से होता है। इस रोग से प्रभावित टहनियों, पत्तियों व पुष्पक्रमों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है तथा अधिक प्रकोप की अवस्था में पुष्प व पत्तियाँ गिर जाती है। इसके नियंत्रण हेतु घुलनशील गंधक 2.5 ग्राम या कैराथेन 1 मिली. प्रति लीटर पानी में घोलकर दो बार छिड़काव करना चाहिए।

श्यामवर्ण (Anthracnose)यह रोग Colletotrichum gloeosporioides नामक कवक से होता है।इस रोग से प्रभावित पत्तियों पर भूरे व काले फफोलेनुमा धनपानी में घोलकर दो बार छिड़काव करना चाहिए। दिखाई देते हैं तथा पत्तियाँ गिरने लगती है। इसके नियंत्रण के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम या मेन्कोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिडकाव करें तथा रोग ग्रस्त टहनियों व पत्तियो को काट कर नष्ट कर देवें।


कायिकीय विकार ¼Pysiological disorder½

1. पुष्पशीर्ष विकृति (Mango malformation) - इस रोग से प्रभावित पत्तियाँ एवं पुष्पक्रम गुच्छों के रूप में परिवर्तित हो जाते है व पौधे की बढ़वार रूक जाती है तथा उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अभी तक इस रोग के स्पष्ट कारणों का पता नही चल सका है, परन्तु इसके प्रभाव को कम करने के लिए रोगी भाग को नष्ट करने के साथ 200 पी.पी.एम  अल्फा-नेपथेलीन एसीटिक अम्ल का छिडकाव सितम्बर-अक्टूबर माह में करना चाहियें तथा शीघ्र आने वाले (अगेती) पुष्पक्रम को तोड़ देना चाहिए

2. ब्लैक टिप (Black tip) - यह व्याधि आम के उन बगीचों में पाई जाती है जो ईंट के भट्टों के दो किलोमीटर के क्षेत्र में हो। इससे बचाव के लिये आम के बाग ईंट के भट्टों से दूर लगाये तथा भट्टों की चिमनियाँ ऊँची होनी चाहिये।

3 . स्पंजी उत्तक (Spongy tissue )- यह विकार मुख्य रूप से हीट  कनवेक्शन के कारण होता है | इसकी मुख्य समस्या आम की अल्फोंसो किस्म में रहती है| इसके नियंत्रण के लिए कल्टर (Cultar) या सका निवारक का छिड़काव करें | इसका छिड़काव जब फल 50  से 70 प्रतिशत परिपक्व हो जाये तब  10  दिन के अंतराल पर दो छिड़काव करने चाहिए | 

4 . एकान्तर फलन (Alternate bearing) - प्रायः आम की फसल में ऐसा देखा गया है कि पूर्ण विकसित आम के वृक्ष एक वर्ष अच्छी उपज देते है व दूसरे वर्ष उपज बहुत कम या नहीं होती हैं। आम के वृक्षों की इस प्रकार की प्रवृत्ति को एकान्तर फलन कहते हैं। जिस वर्ष अच्छी उपज होती है उसे "ऑन ईयर" कहते हैं तथा जिस वर्ष उपज बहुत कम या नहीं होती है उस वर्ष को "ऑफ" ईयर कहते हैं। अभी तक आम के वृक्षों की इस प्रकार की प्रवृत्ति के कारणों का स्पष्ट पता नहीं चल पाया हैं फिर भी ऐसा अनुमान है कि यह प्रवृत्ति निम्नलिखित कारणों से सकती है।

(1) आन्तरिक कारण  -

पौधों में फलन का स्वभाव - आम की कई जातियों के पौधों में फलो की कलिइसके नियंत्रण के याँ उनके निश्चित स्थान पर बनती है। पौधों को भोजन व खनिज तत्व यदि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं तो फलन कलियाँ अपने-अपने स्थान पर निकलती है। जिस वर्ष पौधों में फल अग्र कलिकाओं पर बनते हैं तो अगले वर्ष कक्ष कलिकाओं में फल पैदा नहीं होते, केवल प्ररोह पैदा होते हैं जिससे पौधा बिना फलों के ही रह जाता है नई वृद्धि की आदत रू आम के वृक्ष अनवरत रूप से वृद्धि नहीं करते है। इसके पौधे में वृद्धि के स्वभाव को ‘फ्लश’ कहते है। एक ऋतु इसकी शाखायें नई वृद्धि करती है व कुछ समय पश्चात् रूक जाती है और परिपक्व होती है। जब यह वृद्धि पूर्ण परिपक्व हो जाती है तब इससे नई वृद्धि प्रारम्भ हो जाती है। आम की वृद्धि वर्ष में दो बार मार्च-अप्रेल तथा जुलाई-अगस्त में प्रारम्भ होती है। जब ऑन ईयर और फलन वाले साल में जुलाई-अगस्त और मार्च-अप्रेल में कोई नई वृद्धि नहीं हो तो वृक्ष अगले वर्ष बिना फलत के रहते हैं

नर मादा फूलों का अनुपात - आम के पेड़ में नर व मादा फूल अलग-अलग होते हैं तथा इनका अनुपात विभिन्न किस्मों में अलग-अलग होता है। जिन किस्मों में नर फूल अधिक होते है एंव मादा फूल कम होते हैं उनमें स्वभाविक रूप से कम फलत होती है।

कार्बोहाइड्रेट नत्रजन अनुपात - आम के वृक्ष में कार्बोहाइड्रेट व नत्रजन की एक विशिष्ट मात्रा समाहित होती है। फलवृक्षों में जब कार्बोहाइड्रेट की कमी व नत्रजन की अधिकता हो जाती है तो फलत कम होती है व वृद्धि अधिक होती है।

वृद्धि नियंत्रको का असन्तुलन - आम में कई वृद्धि नियंत्रक जैसे जिब्रेलिन, ऑक्जिन एंव इन्हीबिटर (Inhibiter elements) तत्व पुष्पन के लिए जिम्मेदार होते हैं। यदि इनके अनुपात में असन्तुलन हो जाए तो इसका प्रतिकूल प्रभाव फूल बनने में पड़ता है। जैसे कि फूल आने के लिये ऑक्जिन व निरोधक तत्वों की मात्रा अधिक तथा जिब्रेलिन की मात्रा कम होनी चाहिये।

परागण - प्रायः हवा तथा कीटों द्वारा आम के पौधे में परागण होता है यदि किसी कारण से यह क्रिया प्रभावित होती है तो फलत वाले वर्ष भी अफलत में बदल जाते हैं। किस्मों का प्रभाव रू एकान्तर फलन आम की कुछ व्यवसायिक किस्मों का आनुवांशिक गुण है यद्यपि नीलम, बैंगलोरा आदि प्रतिवर्ष फल देती है किन्तु इनकी गुणवत्ता स्तरीय नहीं होती। दशहरी, लंगड़ा, अल्फांसोआदि प्रतिवर्ष फल नहीं देती है।

2 बाह्यय कारण  - प्रकाश की गुणवत्ता एंव मात्रा दोनों ही भोजन निर्माण को प्रभावित करती है। प्रकाश की कमी के कारण पौधों में कार्बोहाइड्रेट एकत्रीकरण की क्षमता कम हो जाती है व उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। फलन के समय अधिक वर्षा व अधिक आर्द्रता परागण में व्यवधान उत्पन्न करती है एवं फल निर्माण प्रक्रिया प्रभावित होती है। इसी प्रकार तेज हवायें भी फलन को कम कर देती है। कीट एंव व्याधियों के कारण फूल व फल झड़ जाते हैं तथा वृक्षों की उपज कम हो जाती है।

नियंत्रण के उपाय - उचित समय पर खाद, उर्वरक एंव वृद्धि नियंत्रकों का प्रयोग तथा सिंचाई, निराई, गुड़ाई तथा कीट एवं व्याधियों पर नियंत्रण से अनियमित फलन की समस्या को कम किया जा सकता है। नियमित फल देने वाली किस्में जैसे आम्रपाली, मल्लिका, रत्ना आदि किस्मों का रोपण करना चाहिए। कुछ शाखाओं के फूल फल बनने से पूर्व ही तोड़ दिये जाए तथा शेष को फलने दिया जाए तो अगले वर्ष जिनमें फलन नही लिया गया है उनमें फलन होगा तथा उत्पादन में प्रतिवर्ष सन्तुलन बना रहेगा। सितम्बर अक्टूबर माह में पेक्लोब्यूट्राजोल (5-10 ग्राम/ वृक्ष) मृदा में मिलाने से ऑफ ईयर में भी फल बनने की संभावना रहती है।

लेखक : दुर्गाशंकर मीणा** तकनीकी सहायक,  और जयराज सिंह गौड़*

कृषि अनुसन्धान केंद्र, मण्डोर (कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर)

स्रोत:- माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अजमेर

Comments

  1. Excellent information
    Kindly publish more article related subject

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

अनार की उत्पादन तकनीक (Production Technology of Pomegranate)

"माल्टा की उत्पादन तकनीक" (Production Technology of Sweet Orange)