केले की उत्पादन तकनीक (Production Technology of Banana)
प्रस्तावना (Introduction)
केला
वानस्पतिक नाम - मूसा पेराडिसिएका
कुल - मूजेसी
उत्पत्ति स्थान - भारत
गुणसूत्रों की संख्या - 2n = 2x =22, 3x = 33, 4x = 44
खाद्य योग्य भाग - मेसोकार्प एंड एन्डोकार्प
फल का प्रकार - बेरी
केले को मुख्य रूप से Adam's fig, Tree of wisdom, Tree of paradise, Apple of paradise व Kalpataru के नाम से भी जाना जाता हैं | केला हमारे देश का प्रमुख उष्ण कटिबंधीय फल है। अनादिकाल से इसकी खेती भारत देश मे लोकप्रिय है। रामायण एवं महाभारत मे भी इसका वर्णन कदलीफल के रूप मे मिलता है। केला उत्पादन में भारत विश्व के अग्रणी देशों में से है। इसका उपयोग न केवल ताजे फलों के केला रूप में वरन् सब्जी के लिये भी इसका व्यापक रूप से उपयोग होता है। भारत में इसकी खेती तमिलनाडू, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा, आसाम, बिहार व पश्चिम बंगाल में काफी मात्रा में की जाती है। क्षेत्रफल एवं उत्पादकता में तमिलनाडु राज्य जबकि उत्पादन मे महाराष्ट्र राज्य का प्रथम स्थान हैं | राजस्थान में केले की खेती की बांसवाड़ा, उदयपुर, चित्तोरगढ़, राजसमन्द, व डूंगरपुर जिलो में प्रचुर सम्भावनाएँ है।
जलवायु (Climate)
केला उष्ण कटिबन्धीय फल है। इसकी उचित वृद्धि के लिये अनुकूलतम तापमान 10° से 40° सेल्सियस सर्वोत्तम है। पाला, तेज हवाएँ व अधिक गर्मी केले की खेती के लिए नुकसानदेह है। उत्तरी भारत के मैदानी भागों में शरद ऋतु में पाला व ग्रीष्म ऋतु में तेज हवायें तथा लू इसकी खेती के लिये प्रतिकूल परिस्थितियाँ है।
भूमि (Soil)
केला विभिन्न प्रकार की मृदाओं में पैदा किया जा सकता है, परन्तु उपजाऊ, दोमट व गहरी भूमि अधिक उपयुक्त रहती है। भूमि में अधिक लवणीयता व क्षारीयता इसकी खेती के लिये घातक है। इसकी सफल खेती के लिये भूमि का पी.एच. मान 6 से 7 तक होना चाहिए।
उन्नत किस्में (Improved Varieties)
भारत के विभिन्न प्रान्तो में उगायी जाने वाली किस्में निम्नलिखित है-
केंद्रीय केला अनुसन्धान केंद्र - अधुथुरई (तमिलनाडु)
किस्में
आन्ध्र प्रदेश - ड्वार्फ केवेन्डीस, अमृतपन्त, रसथली, करपुरा, पूवन, चक्रकेली, मोनथेन।
आसाम - रोबस्टा, ड्वार्फ केवेन्डीस, भारत मोनी, चीनी, चम्पा, भीम कोल, मनोहर।
बिहार - ड्वार्फ केवेन्डीस, अलपान, मालभोग, चीनी
चम्पा, मुथिया, कोथिया, मोनथेन।
गुजरात - लेकटान, हरीछाल, ड्वार्फ केवेन्डीस।
कर्नाटक - रोबस्टा, हिल बनाना, ड्वार्फ केवेन्डीस, पूवन, रसथली, मोनथेन।
केरल - नेन्ड्रन, पोलिया कोडन, ड्वार्फ केवेन्डीस, रोबस्टा, लाल केला।
महाराष्ट्र - बसरई, रोबस्टा, लाल वेलची, सफेद वेलची, ड्वार्फ केवेन्डीस, राजेली नेन्ड्रन्ं
तमिलनाडू - पुवन, वीरू पक्षी, रोबस्टा, नेन्ड्रन, लाल केला, मोनथेन।
पश्चिम बंगाल - चम्पा, मोर्टमेन, अमृतसागर, जाइंट गवर्नर,
उड़ीसा - लैकटान, मोनथेन।
प्रवर्धन (Propagation)
केले का प्रवर्धन मुख्यतः अन्तः भूस्तारियों (सकर्स) द्वारा किया जाता है।
यह दो प्रकार के होते है-
1. लम्बे पत्ते वाले अन्तः भूस्तारी (स्वार्ड सकर्स)
2. चैड़े पत्ते वाले अन्तः भूस्तारी (वाटर सकर्स)
स्वार्ड सकर्स की पत्तियाँ कम चौड़ी व तलवार के आकार की होती है एवं नये पौधे तैयार करने के लिये इन्हे सबसे अच्छा माना जाता है। वाटर सकर्स की पत्तियाँ चौड़ी होती है और पौधे भी कमजोर होते है। केले के पौधे के चारों तरफ वर्ष भर सकर्स उगते रहते हैं। लगभग 15 सेमी. लम्बे सकर्स को प्रकंद सहित काटकर रोपण के लिये उपयोग मे लेते हैं। जिसका वजन 500 से 1500 ग्राम होता है। प्रकंद को 1000 पी.पी.एम. डाइफोलेटॉन से 90 मिनट तक उपचारित करके 7 दिन तक धूप में रखने से रोग की सम्भावना नहीं रहती है।
पौधा रोपण (Planting)
केले के सकर्स रोपण के लिये वर्षा ऋतु सर्वोत्तम है। रोपण के लिए 50×50×50 सेमी. आकार के गढ्ढे 1.8 × 1.8 मीटर की दूरी पर खोदने चाहिए। इन गढ्ढो में 15-20 किग्रा. गोबर की खाद व 50-100 ग्राम मिथाइल पेराथियॉन मिट्टी में मिलाकर भर देना चाहिए। साथ ही 300 ग्राम सुपर फास्फेट. प्रति गढ्ढे की दर से मिलाना उपयुक्त रहता है।
खाद एवं उर्वरक (Manure & Fertilizer)
केले की फसल में 10-15 किलोग्राम गोबर की खाद, 150 ग्राम यूरिया, 150 ग्राम सुपर फास्फेट तथा 250 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति पौधा देना उपयुक्त रहता है। उर्वरकों की उपरोक्त मात्रा सकर्स लगाने के 3, 4 व 5 माह बाद बराबर भागों में बाँटकर देना चाहिए।
सिंचाई (Irrigation)
केले के बगीचे में किसी भी अवस्था में आर्द्रता की कमी नहीं आनी चाहिए। मृदा के प्रकार एवं जलवायु के आधार पर केले के बगीचे में 4 से 7 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए। कम पानी वाले क्षेत्रों में बूंद-बूद सिंचाई प्रणाली अपनाकर केले की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
निराई-गुड़ाई (Hoeing & Weeding)
केले के बगीचे में खरपतवार नियंत्रण आवश्यक है। उचित खरपतवार नियंत्रण के अभाव में 60-70 प्रतिशत उपज का नुकसान हो जाता है। इसके लिये समय-समय पर निराई-गुड़ाई करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त के पौधो पर मिट्टी चढाने तथा अतिरिक्त सकर्स व पत्तियाँ हटाने का कार्य भी निराई-गुड़ाई के साथ किया जाना चाहिए।
उपज एवं भण्डारण (Yield &Storage)
रोपण के 9-12 माह के बाद केला फल देने लगता है। पूर्ण विकसित होने पर हरी अवस्था में ही फलों के गुच्छे काट लिये जाते है। केले की उपज किस्मों के आधार पर 30-50 टन प्रति हैक्टयर होती है। सामान्यतः भारत मे इसकी तुड़ाई अप्रैल से सितम्बर में की जाती है। केले को बंद कमरों मे धूम्रोपचार द्वारा पकाया जाता है। इन कमरों में धूम्रोपचार गर्मी में 18-24 घंटो तक तथा सर्दी में 48 घंटो तक किया जाता है। बर्फ के द्वारा भी केला पकाया जाता है। रसायनों तथा वृद्धि नियंत्रक (ईथरेल) द्वारा भी इन्हे पकाया जाता है। इसके अन्तर्गत हवा रहित कमरों में एक पात्र में 200 मिली. ईथरेल व 10-15 ग्राम सोडियम हाइड्रो-ऑक्साइड का घोल प्रति क्विटल फल की दर से रख देवें। पूर्ण पके हुए फलों को 12-13 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 85-90 प्रतिशत आपेक्षिक आर्द्रता पर 3 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता है।
कीट एवं व्याधियाँ (Insect pest & disease)
1. कीट( Insect) - केले की फसल में निम्न कीटों का प्रकोप होता है
तना छेदक कीट(Odoiporus longicollis) - यह कीट केले के तनों में छेद करके सुरंग बना लेते हैं। वर्षाकाल में इसका प्रकोप अधिक देखा जाता है। इसके नियंत्रण के लिये प्रभावित पौधों को उखाड़ कर जला देवें व कम प्रभावित पौधो में 1.5 मिली. प्रति लीटर की दर से क्वीनालफॉस 25 ई.सी. का छिड़काव करना चाहिए।
तना छेदक कीट (Odoiporus longicollis) |
केला बीटल (Rhizome weevil-Cosmopolites sordidus)- यह कीट केले की नई बढ़वार एंव छोटे फलों के कोमल छिलकों को खुरच-खुरच कर खाते हैं। इससे प्रभावित पौधे की बढ़वार रूक जाती है। इसके नियंत्रण हेतु फेनिटोथियान 50 ई.सी. एक मिली. प्रति लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करें।
केला बीटल (Rhizome weevil-Cosmopolites sordidus) |
2 व्याधियाँ (Diseases)
पनामा विल्ट (म्लानि) - यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम क्यूबेन्स नामक कवक से फैलता है। यह कवक मिट्टी में रहती है और जड़ों तथा घाव लगे प्रकंदों में घुसकर पौधों को प्रभावित करती है। इस रोग से प्रभावित पुरानी व नीचे उगने वाली पत्तियों में पीले रंग की धारियाँ बन जाती है व पौधा सूखने लगता है। इस रोग से बचाव के लिये स्वस्थ्य अन्तः भूस्तारियों को ही बगीचों में रोपना चाहिये। जिस भूमि पर रोग लगा हो, वहाँ नये पौधे नहीं लगाने चाहिये। जहाँ तक संभव हो रोग रोधी किस्में ही लगानी चाहिये। इस बीमारी से बचाव के लिए पूवन उपयुक्त किस्म हैं |
पनामा विल्ट (म्लानि) |
शीर्ष गुच्छा रोग(Bunchy top) - यह एक विषाणु रोग है जो कि पेन्टोलोमिया निग्रोनोसा नामक माहू कीट द्वारा फैलाया जाता है। प्रभावित पौधों की पत्तियाँ छोटी होकर गुच्छे में परिवर्तित हो जाती है। इसकी रोकथाम के लिये स्वस्थ अन्तः भूस्तारियों का ही रोपण करें व रोगी पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देवें। इसकी रोकथाम के लिए डाइमेथोंएट 1 मिली. प्रति लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तर से 3-4 छिड़काव करें|
शीर्ष गुच्छा रोग |
माहू (पेन्टोलोमिया निग्रोनोसा) |
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