संतरे की उत्पादन तकनीक (Production Technology of Mandarin Fruit )

प्रस्तावना (Introduction) 

भारत में केले के पश्चात नींबू प्रजाति के फलो का तीसरा स्थान है इसमें सर्दी तथा गर्मी सहन करने की क्षमता होने के कारण नींबू प्रजाति का कोई ना कोई फल लगभग सभी प्रांतों में उगाया जाता है। इन नींबू वर्गीय फलो में संतरा भी एक महत्वपूर्ण फल जिसको मुख्त रूप से खाने व रस प्राप्ति के उदेश्य से उगाया जाता है। संतरे को वानस्पतिक रूप से सिट्रस रिटीकुलेटा के नाम से जाना जाता है। इसका कुल रुटेसी एवं उत्पत्ति स्थल दक्षिणी चीन हैं। भारत में नींबू प्रजाति के फलों में संतरे का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है इसे मेंडेरीन भी कहते हैं। इसका छिलका फाँको से चिपका रहता है। अतः आसानी से चिला जा सकता है। संतरा अपनी सुगंध और स्वाद के लिए प्रसिद्ध है। इसमें विटामिन सी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, इसके साथ-साथ इसमें विटामिन ए और बी भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहते हैं। इसका पानक बहुत लोकप्रिय हैं। देश के अंदर संतरे का कुल क्षेत्रफल 4.28 लाख हेक्टेयर है जिससे 51.01 लाख टन उत्पादन होता हैं। संतरे की औसतन उत्पादकता 14.84 टन/हेक्टेयर हैं। राजस्थान राज्य में नागपुर मेंडेरिन का कुल क्षेत्रफल लगभग 23,900 हेक्टेयर है, जिससे कुल उत्पादन 4.7 लाख टन होता हैं। राजस्थान में संतरे की खेती मुख्य रूप से झालावाड़ व कोटा जिलों में ही की जाती हैं |  राजस्थान में होने वाले संतरे के कुल उत्पादन में अकेले झालावाड़ का 90 प्रतिशत से अधिक योगदान हैं। इसलिए झालावाड़ को राजस्थान का नागपुर भी कहते हैं। झालावाड़ में संतरा उप्तादन का मुख्य कारण यहाँ की मिटटी में उपस्थित कैल्शियम कार्बोनेट की परत है।
 जलवायु (Climate) 
संतरा उष्ण व उपोष्ण जलवायु का पौधा हैं। जिन क्षेत्रों में वर्षा 75 से 100 सेंटीमीटर तक होती हैं। वहाँ पर इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। संतरा के लिए वातावरण में अधिक आर्द्रता होनी चाहिए। इसके लिए 23 से 40 डिग्री सेल्सियस तापमान तापक्रम उपयुक्त रहता है। राजस्थान में इसकी खेती झालावाड़ व कोटा जिलों में व्यवसायिक स्तर पर की जाती हैं। 
भूमि (Soil) 
संतरे की खेती लगभग सभी प्रकार की अच्छे जल निकास वाली जीवांश युक्त भूमि में की जा सकती है, परंतु गहरी दोमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम मानी जाती हैं। भूमि की गहराई 2 मीटर होनी चाहिए। मृदा का पीएच 4.5 से 7.5 उचित रहता है। इसकी सफलतम खेती के लिए अवमृदा कंकरीली पथरीली व कठोर नहीं होनी चाहिए। 
उन्नत किस्में (Improved varieties) 
भारत में उगाई जाने वाली किस्मों में नागपुरी संतरा, खासी संतरा, कुर्ग संतरा, पंजाब देसी, दार्जिलिंग संतरा व लाहौर लोकल आदि प्रमुख हैं। भारतीय संतरा में नागपुर संतरा सर्वोपरि हैं एवं विश्व के सर्वोत्तम संतरा में इसका स्थान प्रमुख हैं। किंग तथा विलोलीफ के संकरण से तैयार किन्नो की किस्म पंजाब और राजस्थान में व्यवसायिक महत्व की किस्म है। 
प्रवर्धन (Propagation) 
संतरे का वानस्पतिक प्रवर्धन कलिकायन विधि द्वारा किया जाता है।कलिकायन के लिये मूलवृन्त के रूप में जट्टी खट्टी, जम्भिरी, रंगपुर लाइम, किलओप्टरा मेन्डेरिन, ट्रायर सिट्रेन्ज तथा करना खट्टा काम में लेते हैं। मूलवृन्त फरवरी माह मे तैयार किये जाते है। लगभग एक वर्ष आयु का मूलवृन्त कलिकायन के लिये उपयुक्त रहता है। साधारणतः शील्ड एवं पैच कलिकायन फरवरी से मार्च व सितम्बर दृ अक्टूबर में किया जाना चाहिये।
 पौधा रोपण (Planting) 
कलिकायन किये गये पौधे दूसरे वर्ष जब लगभग 60 सेमी. के हो जाये तो पौधारोपण हेतु उपयुक्त माने जाते हैं। संतरे के पौधे लगाने के लिए 90 घन सेमी. आकार के गढ्ढे मई-जून में 6 × 6 मीटर की दूरी पर खोदे जाते हैं। उत्तरी भारत में पौधे लगाने का उचित समय जुलाई-अगस्त है। पौधा लगाने से पूर्व प्रत्येक गढ्ढे को 20 किलोग्राम गोबर की खाद, 1 किलोग्राम सुपर फास्फेट व मिट्टी के मिश्रण से भरना चाहिए। दीमक के नियंत्रण के लिए मिथाइल पेराथियान 50-100 ग्राम प्रति गढ्ढा देना चाहिए।
 खाद एवं उर्वरक (Manure and fertilizer)
 सन्तरे के पौधों से उत्तम गुणवत्ता वाले अधिक फल प्राप्त करने के लिये खाद व उर्वरकों का उचित प्रबन्धन करना चाहिए। सन्तरे के पौधो में निम्न सारणी अनुसार खाद व उर्वरक देने की अनुशंसा की जाती है। 
  क्र.सं             पौधे की आय       गोबर की खाद        यूरिया         सुपर फास्फेट          म्यूरेट ऑफ पोटाश 
1.                    एक वर्ष                    15 किग्रा.              125 ग्राम               250 ग्राम                      - 
2.                     दो वर्ष                      30 किग्रा.              250 ग्राम              500 ग्राम                      - 
3.                    तीन वर्ष                     45 किग्रा.              375 ग्राम             750 ग्राम                     200 ग्राम
4.                    चार वर्ष                     60 किग्रा.              500 ग्राम             600 ग्राम                     200 ग्राम 
5.                   पाँच वर्ष                      75 किग्रा.              625 ग्राम             1250 ग्राम                   400 ग्राम 
गोबर की खाद, सुपर फास्फेट, म्यूरेट ऑफ पोटाश की पूरी मात्रा दिसम्बर-जनवरी में देना चाहिये। यूरिया की 1/3 मात्रा फरवरी में फूल आने के पहले तथा शेष 1/3 मात्रा अप्रेल में फल बनने के बाद और शेष मात्रा अगस्त माह के अन्तिम सप्ताह में देवें। सन्तरा में फरवरी व जुलाई माह में गौंण तत्वों का छिड़काव करना उचित रहता है। इसके लिये 550 ग्राम जिंक सल्फेट, 300 ग्राम कॉपर सल्फेट, 250 ग्राम मैंगनीज सल्फेट, 200 ग्राम मैग्नेशियम सल्फेट, 100 ग्राम बोरिक एसिड, 200 ग्राम फेरस सल्फेट व 900 ग्राम चूना लेकर 100 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। 
सिंचाई (Irrigation)
सर्दी में दो सप्ताह व गर्मी में एक सप्ताह के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। फल लगते समय पानी की कमी से फल झड़ने लगते हैं। फल पकने के समय पानी की कमी से फल सिकुड़ जाते है व रस की प्रतिशत मात्रा घट जाती है। अतः जब सन्तरे का उद्यान फलन में हो तब आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। खाद देने के बाद सिंचाई करना परम आवश्यक है। कटाई-छंटाई संतरे का सुन्दर ढांचा बनाने के लिए प्रारम्भिक वर्षो मे कटाई-छंटाई की जाती है। फल देने वाले पौधो को कटाई-छंटाई की कम आवश्यकता होती है, परन्तु सूखी व रोगग्रस्त टहनियों को काटते रहना चाहिए। 
उपज एंव भण्डारण (Yield and Storage)
 कलिकायन द्वारा तैयार किये गये पौधे 3-5 वर्ष की आयु में फल देते हैं। प्रायः पुष्पन के 8 से 9 माह बाद फल पक कर तैयार हो जाते है। सन्तरे के फलों का रंग हल्का पीला हो जाये तब इन्हें तोड़ लेना चाहिये। सन्तरे की उपज 600 से 800 फल तथा औसतन 70 से 80 किग्रा. प्रति पौधा प्राप्त होती है। सन्तरा के फलो को 5-6 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 85-90 प्रतिशत आपेक्षिक आर्द्रता पर 4 महीने तक भण्डारित किया जा सकता है। 
फलों का गिरना (Fruit drooping)
सामान्यतः माल्टा में तुड़ाई के लगभग पांच सप्ताह पहले से फल गिरने लगते हैं, इसकी रोकथाम हेतु 2, 4-डी (10 पी.पी.एम.) या एन.ए.ए.150 पी.पी.एम.) का छिड़काव करना चाहिये। इसके अतिरिक्त फलन के समय भूमि में समुचित नमी बनाये रखना चाहिये। यदि फलन के समय किसी कवक जनित रोग का प्रकोप हो तो उसके नियन्त्रण का उचित उपाय करना लाभकारी रहता है।
 कीट एंव व्याधियाँ(Insect pest and diseases)
 1.कीट- नींबू वर्गीय फलों को नुकसान पहुचाने वाले विभिन्न कीटों में निम्नलिखित कीट प्रमुख है - नींबू की तितली- तितली की लटें पत्तियों को खा कर नुकसान पहुंचाती है। इससे पौधों की वृद्धि रुक जाती है। इसके नियंत्रण के लिये लटों को पौधों से पकड़ कर मिट्टी के तेल में डालना चाहिए। क्विनालपोस 25 ई.सी. का 1.5 मिली./लीटर पानी मैं गोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। 
 फल चूषक - कीट फलों से रस चूस कर नुकसान करता है। प्रभावित फल पीला पड़कर सूख जाता है और गुणवत्ता भी कम हो जाती है। इस कीट के नियंत्रण के लिये मैलाथियॉन 50 ई.सी. 1 मिली./लीटर पानी का घोल का छिड़काव करना चाहिए। कीट को आकर्षित करने के लिये प्रलोभक का भी उपयोग करना चाहिए। प्रलोभक में 100 ग्राम शक्कर के 1 लीटर घोल में 10 मिली. मेलाथियॉन मिलाया जाता है। 
 लीफ माइनर - यह कीट वर्षा ऋतु में नुकसान पहुंचाता है। यह पत्तियों की निचली सतह को क्षतिग्रस्त कर पत्तियों में सुरंग बनाता है। इस कीट के नियंत्रण हेतु मिथाइल डिमेटॉन 25 ई.सी. या क्विनालपोस 25 ई.सी. का 1.5 मिली./लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।


Lemon butterfly -papillo demoleus 
इस कीट ली लार्वी पत्तियों की ऊपरी बगल में रहती हैं और पत्तियों खाती रहती है। इसके  नियंत्रण के लिए क्विनल्फॉस दवा को 1. 5 मिली के हिसाब से एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

Citrus psylla-Diaphorina citri 
यह निम्बू वर्गीय पोधो का मुख्य कीट हैं जो सिट्रस  ग्रीनिंग बीमारी भी फैलाता हैं इसके निंयत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड दवा का 0. 8 मिली प्रति लीटर के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
Citrus aphid-Toxoptera citricida
यह किट  पौधे की पतियों, तने व शाखाओं से रस चूसता जिसके कारण पौधा कमजोर हो जाता है इसके साथ साथ यह ट्रिस्टीसा (tristiza disease) बीमारी भी फैलता हैं। इसके नियत्रण के लिए रोगोर दवा को 1 मिली प्रति लीटर के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
 
मूलग्रन्थी (सूत्रकृमी) - यह नींबू प्रजाति के फलों की जड़ो को नुकसान पहुँचता है। इसके प्रकोप से फल छोटे व कम लगते है। नुकसान पहुंचाता है जिससे पत्तियाँ पीली पड़ कर टहनियाँ सूखने लगती इसके नियंत्रण के लिये कार्बोफ्यूरॉन 3 जी. 20 ग्राम/पौधा देना चाहिए। 
2. व्याधियाँ - नींबू वर्गीय फलों को प्रभावित करने वाली निम्नलिखित व्याधियाँ प्रमुख है-
 नींबू का केंकर - यह रोग जेन्थोमोनास सिट्राई नामक जीवाणु द्वारा होता है। रोग से प्रभावित पत्तियों, फलों व टहनियों पर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है। फलों पर पीले, खुरदरे धब्बे बन जाने से गुणवत्ता प्रभावित होती है। कागजी नींबू इससे ज्यादा प्रभावित होते है। केंकर की रोकथाम के लिये 20 ग्राम एग्रोमाइसीन अथवा 8 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन को 10 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। नये रोग रहित पौधों का चुनाव करें तथा पौधों पर रोपण से पूर्व 4 : 4 : 50 बोर्डो मिश्रण का छिड़काव करें |
गमोसिस - यह तना सड़न रोग है जिसमें तने से भूमि के पास व टहनियों के ग्रसित भाग से गोंद जैसा पदार्थ निकलता है। इस गोंद से छाल प्रभावित होकर नष्ट हो जाती है। रोग के अधिक प्रकोप से पौधा नष्ट हो जाता है। रोग के नियंत्रण के लिये छाल से गोंद हटाकर ब्लाईटॉक्स-50 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए। इस दवा का छिड़काव पौधों पर भी किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त बाग का उचित प्रबन्धन भी रोग से बचाव करता है। सूखा रोग (डाई बैक) - इस रोग में टहनियाँ ऊपर से नीचे की तरफसूख कर भूरी हो जाती है। पत्तियों पर भूरे बेंगनी धब्बे बनने से सूख कर गिर जाती है। इससे उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा पौधा नष्ट हो जाता है। नियंत्रण के लिये रोगी भाग को काट कर अलग करना चाहिए एंव मेन्कोजेब 2 ग्राम/लीटर पानी का घोल का छिड़काव करना चाहिए। इसके अतिरिक्त फरवरी व अप्रेल माह में सूक्ष्म तत्वों का पौधों पर छिड़काव करना चाहिए।




लेखक :- डी. एस. मीणा तकनीकी सहायक, डॉ एम.एल. मीणा (उद्यान विज्ञान) और डॉ एम. राम (सस्य विज्ञान)
कृषि अनुसन्धान केंद्र, मंडोर, (कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर) 















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