अमरूद की उत्पादन तकनीक (Production Technology of Guava)
परिचय (Introduction)
अमरूद
वानस्पतिक नाम - सिडियम ग्वाजावा
कुल - मिर्टेसी
उत्पत्ति स्थान - मेक्सिको
गुणसूत्रों की संख्या - 2n=22
खाद्य योग्य भाग - थैलमस व पेरिकार्प
हमारे देश में अमरूद एक लोकप्रिय फल है। यह विभिन्न प्रकार की मृदाओं एवं जलवायु में पैदा किया जा सकता है। अत्यन्त सहिष्णु स्वभाव के कारण इसे बहुत कम देख रेख की आवश्यकता पड़ती है। उत्तरी भारत में अमरूद की वर्ष में तीन बार फसल ली जा सकती है। इसके ताजा फल विटामिन ‘सी’ के अतिरिक्त कैल्शियम, फास्फोरस एवं पैक्टिन के अच्छे स्रोत है। अमरूद के फल से परिरक्षित पदार्थ जैसे जेम, जैली, चीज, टॉफी आदि तैयार किये जाते है।
पोषण मूल्य (Nutritional value)
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विटामिन 'ए' |
624 IU |
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जलवायु (Climate)
यह उपोष्ण एवं उष्ण जलवायु का फल है। अमरूद में सूखा सहन करने की शक्ति तो होती है, परन्तु अधिक पाला सहन नहीं कर सकता। अमरूद की फसल तापमान के उतार चढाव को सहन कर लेती है, परन्तु तापमान के कम होने पर फल पकाव, उपज व गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसकी शीत ऋतु की फसल उत्तम रहती है क्योंकि शीत ऋतु के फल कीट व व्याधि के प्रकोप से मुक्त होते है।
भूमि (Soil)
अमरूद मिट्टी के प्रति बहुत सहिष्णु है। यह चिकनी तथा बलुई दोनों प्रकार की मिट्टी में हो सकता है परन्तु गहरी उपजाऊ बलुई दोमट मिट्टी जिसका पी.एच. मान 4.5 से 8.2 तक हो, इसकी खेती के लिये अधिक उपयुक्त रहती है।
उन्नत किस्में (Improved varieties)
भारत में प्रचलित अमरूद की विभिन्न किस्मों में सरदार अमरूद (एल-49), इलाहाबादी सफेदा, अर्का मृदुला, सीडलेस, चित्तीदार, एपल कलर, कोहिर सफेद, सफेद जाम, इलाहाबाद सुर्खा , हफसी आदि प्रमुख है। उपरोक्त किस्मों में से सर्वाधिक खेती सरदार अमरूद व इलाहाबादी सफेदा की होती है।
प्रवर्धन (Propagation)
अमरूद का प्रवर्धन बीज व वानस्पतिक विधियों द्वारा किया जाता है। मूलवृन्त तैयार करने के लिये बीज द्वारा पौधे तैयार किये जाते हैं। बीजों को मिनट तक उबाल कर या सान्द्र गंधक के तेजाब से दो मिनट तक उपचारित करने से अंकुरण जल्दी व पूरा होता है। विभिन्न वानस्पतिक विधियों में से अमरूद का प्रवर्धन पैच कलिकायन द्वारा किया जाता है। अमरूद का प्रवर्धन ढेरी दाव (माउण्ड लेयरिंग या स्टूलिंग) द्वारा भी किया जा सकता है। ध्यान रहे कि ढेरी दाब द्वारा प्रवर्धन करने के लिये मातृ पौधे का बगीचा लेयरिंग या ढेरी दाब (स्टूलिंग) द्वारा तैयार किये हुए पौधों का ही होना चाहिए
पौधा रोपण (Planting)
अमरूद के पौधे लगाने के लिये किस्म व भूमि के अनुसार 1×1×1 मीटर आकार के गढ्ढे 6-8 मीटर की दूरी पर मई-जून माह में खोद लेने चाहिए। खाद व 1.25 किलोग्राम सुपर फास्फेट प्रति गढ्ढे के हिसाब से मिला कर भर देना चाहिए। पौधे लगाने का उत्तम समय वर्षा ऋतु है, परन्तु पानी की पूर्ण सुविधा होने पर फरवरी-मार्च में भी पौधे लगाये जा सकते हैं।
खाद एवं उर्वरक (Manure & Fertilizer)
पौधों की उम्र के हिसाब से प्रति पौधे में खाद व उर्वरक की निम्नलिखित मात्रा देनी चाहिए।
खाद व उर्वरक |
खाद व उर्वरक की मात्रा/पौधा |
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गोबर की खाद (किग्रा) |
यूरिया (किग्रा) |
सुपरफास्फेट (किग्रा) |
म्यूरेटऑफपोटाश (किग्रा) |
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1&3 |
10 & 20 |
0-05 & 0-25 |
0-15 &1-5 |
0-20&0-40 |
4&6 |
25 & 40 |
0-30 & 0-60 |
1-5 & 2-20 |
0-40&0-80 |
7&10 |
40 & 50 |
0-75 & 1-00 |
2-0 & 2-50 |
0-80&1-20 |
10 |
50 |
1-0 |
2-5 |
1-20 |
सिंचाई (Irrigation)
अमरूद को बहुत अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। साधारणतः गर्मी के मौसम में सप्ताह में एक बार व सर्दी में 15 दिन में एक बार सिंचाई करना चाहिए। अमरूद के नये रोपे गये पौधो में सूखे की अवस्था में नियमित सिंचाई करनी चाहिए।
कटाई-छंटाई (Training & Pruning)
अमरूद के पौधों को सुदृढ व सुडौल आकार प्रदान करने के लिये प्रारम्भिक अवस्था में कटाई-छंटाई करना आवश्यक है। प्रारम्भ में 3-4 फीट की ऊँचाई तक एक तने पर पौधो को बढ़ने दिया जाए व बाद में चारदृपाँच चयनित शाखाओं को बढ़ा कर उचित आकार दिया जाता है। अमरूद में जड़ो के पास वाटर सकर्स निकलते रहते है उन्हें समय-समय पर हटाते रहना चाहिए।
बहार उपचार (Crop regulation)
अमरूद के पौधों में वर्ष में तीन बार फूल आते है उन्हे विभिन्न बहारों के नाम से जाना जाता है जो निम्न है
1. मृग बहार - वर्षा ऋतु में मृगों में बहार के साथ पुष्पन को मृगबहार कहते हैं। जून-जुलाई में पुष्पन होता है व नवम्बर से जनवरी तक फलन होता है।
2. हस्त बहार - हस्त नक्षत्र में वर्षा होने पर जब पुष्पन होता है तो उसे हस्त बहार कहते है। इस बहार में अक्टूबर में फूल आकर फरवरी से अप्रेल तक फलन होता है।
3. अम्बे बहार - आमों में पुष्पन के साथ बहार होने से इसे अम्बे बहार कहते हैं। फरवरी में फूल आते है व जुलाई-अगस्त में फल तैयार होते है। अमरूद से अधिक एंव अच्छी गुणवत्ता वाली फसल लेने के लिये वर्ष में एक ही बहार के फल लेना चाहिए। अवांछित फलन को रोक कर वृक्ष को आराम के लिये बाध्य करना ही बहार नियंत्रण कहलाता है। अम्बे बहार के फल बरसात में उपलब्ध होते है एवं कीट व व्याधियों से प्रकोपित होते है। बरसात की फसल के फल निम्न गुणवत्ता वाले व मीठे भी कम होते है। इसलिये मीठे व रोग रहित फलों के लिये मृग बहार की फसल ही ली जानी चाहिए।
मृग बहार की फसल लेने और अम्बे बहार के फूल रोकने के लिये। फूल आने के दो माह पूर्व ही सिंचाई बन्द कर देनी चाहिए, जिससे पेड़ की पत्तियाँ व फूल झड़ कर पौधा सुसुप्तावस्था में आ जाता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा किये गये शोध कार्य के अनुसार उक्त बहार उपचार के लिये 100 पी.पी.एम. एन.ए.ए. का छिड़काव अम्बे बहार में 10 प्रतिशत फूल आने की अवस्था में भी किया जा सकता है।
उपज एवं भण्डारण (Yield & Storage)
अमरूद में फूल से फल बनने की प्रक्रिया में लगभग पाँच महीने लगते है। जब फल का रंग बदलने लग जाये तब तुड़ाई प्रांरभ कर देनी चाहिये। एक परिपक्व वृक्ष से 40-50 किलोग्राम फल प्राप्त हो जाते हैं।
अमरूद को तुडाई के बाद 9-10 डिग्री सेल्सियस तापमान पर लगभग तीन सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता है व कमरे के तापमान पर अधपके फलों को लगभग सात दिन तक रखा जा सकता हैं।
कीट एवं व्याधियाँ (Insect-pest & diseases)
1. कीट
फल मक्खी (Fruit fly) - यह कीट फल के अन्दर घुस कर अण्डे देता है एवं कुछ समय बाद अण्डे से सुंडी निकलकर गूदा खाना शुरू कर देती है। प्रभावित फल में सड़न प्रारंभ हो जाती है एंव कुछ ही समय में फल गिर जाता है। इसकी रोकथाम के लिये प्रभावित फलों को इकट्ठा करके नष्ट कर दे एंव मेलाथियान 50 ई.सी. का एक मिली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करें। भूमि की दो तीन बार जुताई करें व वर्षा की फसल न लेवें।
छाल भक्षक (Bark caterpiller) - यह कीट अमरूद के तने तथा शाखाओं की छाल खाकर तने के अन्दर घुस जाता है। इसकी रोकथाम के लिये कीट द्वारा बनाई सुरंगों को साफ करके मिट्टी के तेल अथवा पेट्रोल से भीगा हुआ रूई का फोया बनाकर सुरंग में भर कर ऊपर से मिट्टी का लेप कर देवें।
व्याधियाँ
1.उखटा रोग (Wilt disease)- अमरूद का यह विनाशकारी रोग फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम कवक द्वारा होता है। प्रभावित वृक्ष की शाखाएँ अग्रभाग से सूखती हुयी नीचे तक सूख जाती है व अचानक पूरा पेड़ ही मुरझा कर सूख जाता है। इस रोग के नियंत्रण के लिये रोगग्रस्त सूखी टहनियों को काटकर जला देंवे, बगीचे में जल निकास की उचित व्यवस्था करें तथा कार्बेडिज्म का एक ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 20 लीटर घोल प्रति पेड़ ड्रेन्च किया जाना चाहिए।
श्यामवर्ण (Anthracnose) - यह रोग कोलेटोट्राइकम सिडिआई नामक कवक द्वारा फैलता वर्षा ऋतु में इसका प्रकोप अधिक दिखाई देता है। प्रभावित फलों पर काली चित्तियाँ पड़ जाती हैं व फल छोटे एंव सख्त हो जाते है। इसके नियंत्रण के लिये 5ः5ः50 बोर्डो मिश्रण या मैन्काजेब का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर 10-15 दिन के अंतर से छिड़काव करना चाहिए है।
लेखक - दुर्गाशंकर मीना, तकनीकी सहायक, कृषि अनुसंधान केंद्र, मंडोर (कृषि विश्वविध्यालय, जोधपुर)
मनीष कुमार मीना और नरेश मीना, सहायक कृषि अधिकारी (कृषि विभाग, राजस्थान सरकार)
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